कोरकू समुदाय का उदरनिर्वाह कैसे होता है?

प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति "
प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति "

कोरकू जनजाति मध्य भारत के महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के सुदूर ग्रामीण अंचलो में निवास करती है .  मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ,बैतूल ,छिंदवाडा और खंडवा जिले के वनग्रामो में रहने वाली इस जनजाति के लोग घूम खेती और शिकार करके अपना जीवन यापन करते है .  कोरकू जनजाति मध्य भारत की एक पिछड़ी और पोषण संवेदनशील जनजाति है . सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ये अन्य प्राचीन आदिम जनजाति जैसे बैगा और सहरिया के बराबर है . लेकिन आज भी इन्हें प्राचीन आदिम जनजाति का दर्जा नहीं प्राप्त हुआ .
वर्ष 1973 में देश की सात सौ जनजातियों में से 75 जनजतियों को प्राचीन आदिमजाति का दर्जा दिया गया . जिसमे मध्यप्रदेश में निवासरत  46 जनजातियों में से सिर्फ तीन जनजातियां सहारिया,बैगा और भारिया ही यह दर्जा प्राप्त कर सकी ,कोरकू जनजाति इससे वंचित रह गई . जिससे उनका विकास अवरुद्ध हुआ .

मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से भील, गोंड, कोरकू जनजातियाँ निवास करती हैं। इन जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली बोलियाँ काफी समृद्ध एवं प्राचीन हैं। आधुनिकता के इस दौर में इन बोलियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। इन बोलियों के अनेकों शब्द धीरे-धीरे इन जनजातियों की बोलचाल से विलुप्त होते जा रहे हैं।विश्व की जानी मानी संस्था यूनेस्को ने कोरकू भाषा पर चिंता जाहिर करते हुए लिखा की , सरक्षण के अभाव  में  कोरकू भाषा अगले दस वर्षो में विलुप्त हो जाएगी .  इस स्थिति में इन बोलियों के संरक्षण की दिशा में मध्यप्रदेश आदिम-जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान (टी.आर.आई) ने पहल करते हुए भीली, गोंडी एवं कोरकू बोलियों के शब्दकोश तैयार किये हैं। इन तीन बोलियों के लगभग 16 हजार शब्दों को संकलित कर पृथक-पृथक शब्दकोश तैयार किया गया है। प्रदेश में भीली और भिलाली बोलियाँ झाबुआ, अलीराजपुर, धार, खरगोन, बड़वानी, रतलाम आदि जिलों में, "गोंडी"  बोली डिण्डौरी, मण्डला, छिन्दवाड़ा, शहडोल, अनूपपुर, बैतूल, सिवनी, होशंगाबाद, सीधी, बालाघाट, रायसेन आदि जिलों में एवं "कोरकू"  बोली खण्डवा, बुरहानपुर, होशंगाबाद, हरदा और बैतूल आदि जिलों में रहने वाली जनजातियों द्वारा बोली जा रही हैं।
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खंडवा जिले के आदिवासी विकास खंड खालवा में एक लाख साहठ हजार आदिवासी रहते है . जिनमे कोरकू , गोंड और बारेला [भील ] शामिल है  . जिनमे  70% कोरकू जनजाति से है . जो मध्यप्रदेश के अलग -अलग हिस्सों में निवास करने वाली कोरकू जनजाति का कुल 31% है . कोरकू सीमांत किसान के रूप में है , जिनमे अधिकतर खेतिहर मजदुर है , अशिक्षा ,कुपोषण और रोजगार इस जनजाति के पिछड़ेपन की मुख्य वजह है  .आदिवासी विकासखण्ड खालवा के ग्रामीण अंचलो में विकास के नाम पर अरबों रूपये खर्च किये जा चुके है , बावजूद इसके यहां कुछ नहीं बदला ।  विकास के नाम पर कुछ ग्रामीण इलाको में पञ्च परमेश्वर योजना के तहत कंक्रीट की सड़के नजर आती है।  बिजली के पोल नजर आते है , जिसमे चार -पांच दिन के अंतराल से कुछ घंटो बिजली मिलती है।  कहने को इन आदिवासी इलाको में सभी तरह की सुविधा उपलब्ध है , सुविधा के नाम पर गाँव में स्कुल है , आंगनवाड़ी है , आशा कार्यकर्ता है , स्वास्थ केन्र्द भी है।  लेकिन सब बदहाल। यही वजह है की यहां रहने वाले  ग्रामीणो का सरकारी तंत्र पर भरोसा नहीं है।

मध्‍यप्रदेश में निवासरत कोरकू आदिवासी , आज भी  उपचार के लिए पारम्परिक तरीको का सहारा लेते है . किसी भी तरह की बीमारी का उपचार चाचवा के जरिये किया जाता है . कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में कुपोषित और बीमार बच्चों का उपचार , आज भी  पारम्परिक तरीके चाचवा से किया जा रहा है  ,चाचुआ यानी सुर्ख लाल, गर्म सलाखों बीमार मासूमों को दागने का प्रचलन बदस्तूर जारी है. सुदूर अंचलों में जहाँ चिकित्सा के साधनों के चलते लोग अपने मासूमों की जान दाव पर लगाकर उन्हें ओझा या बाबा से गर्म सलाखों से शरीर को दागवाते है. ग्रामीणों का ऐसा मानना है ऐसा करने से उनका बच्चा बिमारी से मुक्त हो जाएगा जबकि बच्चे इससे इन्फेक्शन का शिकार हो जाते है और उनकी जान पर बन पड़ती है. चाचवा इलाज पद्धति में गर्म लोहे की सलाखों से मानव अंगो को दागा जाता है . यह उपाय कारगर नहीं होने पर बीमार की मौत भी हो जाती है .
कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में कुपोषण भी गंभीर समस्या  के रूप  है।   पिछले वर्षों में कुपोषण से कई आदिवासी बच्चो की मौत हो चुकी है। महिला और बाल विकास विभाग जिले में कुपोषण के दंश को रोक नहीं पा रहा है। खंडवा जिले में बाल मृत्यु दर  अत्यधिक होने के कारण जिला प्रशाशन ने भी घुटने टेक दिए है। प्रति वर्ष बारिश के मौसम में , जिले के अलग पोषण पुनर्वास केन्द्रों पर भर्ती होने वाले कुपोषित बच्चो का औसत आंकड़ा दस बच्चे प्रतिदिन है . जिसमे दो से तीन अति कुपोषित बच्चे उपचार हेतु खंडवा रेफर किये जाते  है . जिले के खालवा विकासखंड में कुपोषण और मौसमी बीमारियों से हर माह 1 0 से 1 5 बच्चो की मौत हो जाती है। यह हालात मध्य प्रदेश के पूर्व आदिमजाति कल्याण मंत्री विजय शाह के विधानसभा क्षेत्र की है .

खंडवा जिले के खालवा ब्लाक के ग्रामीण अंचलो में 300 से अधिक  आँगनवाडियां चल रही है . जिसमे दर्ज संख्या के अनुपात में मात्र एक या दो प्रतिशत ही उपस्थिति होती है . कुपोषण की मुख्य वजह महिला बाल विकास विभाग की लापरवाही है . जो आँगनवाड़ी में दर्ज बच्चो की उपस्थिति को लेकर गंभीर नहीं है . शासन ने  कुपोषित बच्चो के परिवार वालो को बीपीएल एवं अन्तोदय योजना के तहत  राशनकार्ड बनाकर दिए.. बावजूद इसके कुपोषण थमने का नाम नहीं ले रहा है . जिला महिला और बाल विकास अधिकारी राजेश गुप्ता के मुताबिक जिले के अन्य गांवों में पिछले कुछ वर्षो में लगातार सुधार की स्थिति बन रही है. लेकिन खालवा और पंधाना में अब भी कम वजन और अति कुपोषित बच्चों की संख्या ज्यादा है | कम वजन के बच्चों का आंकड़ा 40 हजार के आसपास था |

एक नजर - खालवा पोषण पुनर्वास केंद्र में उपचार हेतु भर्ती कुपोषित बच्चो के वर्ष वार आंकड़ो पर -
वर्ष  2008-09 - बालक 81    बालिका -34   भर्ती 47     खंडवा रेफर - 06
वर्ष  2009-10  - बालक 189 बालिका -o7    भर्ती 112   खंडवा रेफर- 08
वर्ष  2010-11   - बालक 289 बालिका -97    भर्ती -139खंडवा रेफर - 11
वर्ष  2011-12   - बालक 443 बालिका -220 भर्ती -217 खंडवा रेफर - 07
वर्ष  2012-13   - बालक 800 बालिका -346 भर्ती -454खंडवा रेफर- 94

इन आंकड़ो से साफ़ होता  है की कुपोषण के प्रति अधिकारी और शासन गंभीर नहीं है . जो कोरकू जनजाति के लिए घातक है . आसान नहीं है जब तक इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जावेगा  तब तक यह दिक्कते आती रहेंगी . कोरकू आदिवासी के एक हालिया सर्वेक्षण से पात कहलता है की इनके बच्चों के बीच उम्र के अनुसार ऊंचाई जिसे तकनिकी भाषा में स्टनटिंग कहते हैं बढ़ रही है. यह सतत भूख और पोषण की कमी का परिणाम है. ... इनकी बढ़ने और सीखने  की क्षमता तो यहीं लगभग कम हो गयी. अपने शिकार संग्राहक अवस्था में कोरकू समाज जंगल से मिलने वाले कांड मूल खाते थे जो उनके पोषण का एक महत्वपूर्ण श्रोत था... धीरे धीरे दुसरे की देखा देखी खान पान बदला तो परम्परागत चीजें भी खानी बंद हो गयी पर पूरी तरह नहीं..  कोरकू बच्चे आज भी दूर दराज़ जंगल से कांड मूल खोद लाते हैं... परंपरागत पोषक अनाज जैसे कोड -कुटकी को वापस लेने का प्रयास किया जाए तो कुपोषण में कमी आएगी। 

भारत की जनगणना 1931 में लिखा है - कोरकू सबसे पिछड़ी जनजाति है .इसमें मात्र 3 साक्षर पुरुष है .और कोई भी साक्षर महिला नहीं है ,1961की जनगणना में भी समूचे कोरकू समाज [ महाराष्ट्र और निमाड़ सम्मिलित ] में मात्र 61 साक्षर पुरुष और 5 साक्षर महिलाये थी . 11 कोरकुओं ने मेट्रिक तक की पढ़ाई की थी . जिसमे 2 कोरकू मध्यप्रदेश के थे . ये सारे साक्षर पुरुष ही थे . 2001 की जनगणना के अनुसार कोरकू की साक्षरता की दर पुरुष 38.8 प्रतिशत है और महिला साक्षरता की दर 24.5 है .जो राज्य की ओसत जनजाति साक्षरता दर पुरुष 41.2 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर 28.4 से भी कम है .
आज भी कोरकू जनजाति के बच्चो की साक्षरता दर दुसरे ग्रामीण बच्चो की तुलनात्मक कम है .  कोरकू परिवार में रहने वाले छह या आठ बच्चो में से एक या दो बच्चे ही स्कुल जाते है . घर पर रहने वाले बच्चे अपने छोटे भाई -बहनों की देखरेख के लिए घर में रहते है .

ग्राम लंगोटी में कोरकू परिवार के कुल दो सौ बच्चे स्कुल जाने लायक है ,लेकिन सिर्फ  बीस बच्चे ही स्कुल जाते है . यहां रहने वाले  शिवलाल भाऊ की बेटी साजन कोरकू समाज की एक मात्र ऐसी लडकी है जो नवमी कक्षा की पढ़ाई कर  रही है .ग्राम लंगोटी के शिवलाल भाऊ के परिवार में  कुल आठ थे . जिसमे दो बच्चो की मौत मौसमी बिमारी के चलते हो गई . बाकि बचे छ बच्चो में से सिर्फ दो बच्चे ही स्कुल जाते है . शिवलाल भाऊ ने गरीबी के चलते बाकी बच्चों को स्कुल में दाखिला नहीं दिलाया .खंडवा जिले के आदिवासी विकास खंड खालवा में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन स्पन्दन के कार्यकर्ता अनंत सोलंकी बताते है की कोरकू बहुल ग्रामो में सिर्फ पाचवी कक्षा तक की ही स्कूले है .आगे की पढाई करने के लिए कई किलोमीटर दूर की स्कुलो में जाना पड़ता है .  दूसरा प्रमुख कारण मजदूरी की तलाश में कोरकूओ का पलायन है . जो अपने परिवार के बड़े बच्चो को छोटे बच्चो की देखरेख में लगा देते है . ऐसे हालातो में इन्हें शिक्षा देने के सरकारी प्रयास भी नाकाम साबित हो रहे  है . कोरकू बहुल दूरस्थ गाँवो की सरकारी स्कुलो में पदस्थ शिक्षको की अपने कार्य के प्रति अरुचि भी कोरकू जनजाति के  पिछड़ने की एक वजह है।

आदिवासी बहुल खालवा विकासखण्ड में रहने वाले  कोरकू परिवारों के लिए रोजगार पाना , किसी समस्या की तरह है ।  रोजगार  की तलाश में गाँव से पलायन करना पड़ता है . यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से जारी है।  आदिवासियों के पास जाब कार्ड है , पर रोजगार नहीं . गाँव में मनरेगा के तहत काम तो खुलते है , किन्तु सिर्फ कुछ लोगो को रोजगार मिलता है . वह भी एक वर्ष  में दस से पन्द्रह दिन . एसे में परिवार का पालन - पोषण कैसे करे ? यह समस्या है कोरकू बहुल आदिवासी विकास खंड खालवा में रहने वाले कोरकू परिवारों की . जिन्हें मज़बूरी में रोजगार  की तलाश में पलायन करना पड़ता है .  खालवा ब्लाक के गारबेड़ी , मौजवाडी ,ढ्कोची , पटाल्दा , उदियापुर माल और लंगोटी जैसे कई गाँवो की यही कहानी है।  यहाँ गाँव के  मजदूर परिवारों के मकानो में लगे ताले अपनी कहानी खुद बयान कर रहे है।  गाँव में रह रहे बूढ़े , बच्चे और महिलाओं ने बताया की   गाँव में मनरेगा के तहत वर्ष में सिर्फ दस से पन्द्रह दिन का रोजगार मिलता है  . बाकी दिनों में मजदूरी की तलाश में उन्हें  दुसरे राज्य में जाना पड़ता है .इसके अलावा कई ग्रामीणो की यह भी शिकायत है की  उन्हें  -आज -तक किसी भी सरकारी योजना का लाभ  नहीं मिला , ग्रामीणो का आरोप है की और  ग्राम पंचायत के सरपंच सचिव अपने ख़ास लोगो को ही काम देते है .
गाँव जमनापुर के बुजुर्ग बताते है की वे पिछले दस वर्षों से देखते चले आ रहे है की गाँव के युवा किराया लगा -लगाकर गाँव के बाहर काम की तलाश में चले जाते है।  गाँव का गाँव खाली पड़ा है , गाँव में सिर्फ बूढ़े और बच्चे ही बचे है। पलायन की मुख्य वजह रोजगार की तलाश है . गाँव में मनरेगा के तहत काम सीमेंट रोड निर्माण या कपिलधारा योजना के तहत कूप निर्माण के काम में गाँव के सिमित मजदूरों को काम मिलता है . वह भी सिमित दिनों के लिए . अगर माइक्रो प्लान अपनाया जाकर ग्रामीणों की जरूरतों के हिसाब से गाँव में सरकारी योजनाओं के कार्य खोले जाए , तो पलायन रोका जा सकता है .

 ज्यादातर यह माना जाता रहा है कि कोकरू जनजाति का स्वाधीनता संग्राम में कोई अहम् योगदान नहीं रहा. जब भी स्वाधीनता संग्राम में जनजाति के योगदान का विवरण आता है तो स्वत टांटिया मामा या बिरसा मुंडा जैसे नाम सामने आते हैं.
निमाड की धरती में आज जहाँ कोरकू समुदाय कुपोषण, भूख और उपेक्षा की मार झेल रहा है वहीँ उनका भी एक वीर था जिसने अंग्रेजों और शोषकों के विरुद्ध असाधारण लड़ाई लड़ी थी.
रंगु कोरकू जो सोन खेडी गावं का निवासी था अधिकतर समय टांटिया भील के दल में एक प्रमुख सदस्य के रूप में ( १८७८ से १८८९) तक शामिल रहा. १८८० में टांटिया के २०० साथी गिरफ्तार हुए और उनमें से कुछ जबलपुर जेल से भाग कर निमाड में अपने संघर्ष को संबल प्रदान करते रहे. रंगु कोरकू भी शायद इसमें एक था. टांटिया का क्षेत्र इंदौर राज्य से एल्लिच्पुर और होशंगाबाद जिलों तक विस्तृत हो गया था. सेंट्रल इंडिया के ब्रिटिश एजेंट सर लेपल ग्रिफ्फिन को भी सफलता हासिल नहीं हुई. टांटिया के सर पर ५००० रुपयों का इनाम था.
इस दौरान होलकर शासन और ब्रिटिश सर्कार द्वारा जारी इश्तेहारों , इनाम की नोटिसों और राजपत्रों में टांटिया और उनके साथी की सूचि में रंगु कोरकू का नाम शामिल रहा.
८ मार्च १८८८ को अंग्रेजों द्वारा जारी फरमान जिसमे इंदौर दरबार ने भी २००० रूपये के इनाम की घोषणा की थी उसमे टांटिया के कुछ साथियों के साथ रंगु कोरकू के समक्ष भी टांटिया भील को पकडवाने की शर्त पर माफ़ी की पेशकश की गयी थी. पर ऐसा नहीं हुआ..
टांटिया मामा को तो सम्मान मिला पर निमाड का यह कोरकू वीर इतिहास के पन्नों पर भी खो गया.
कोरकू के जनप्रतिनिधियों या खुद उसके कोरकू समाज ने भी उसकी सुध नहीं ली.
यदि रंगु कोरकू की यादों को ताज़ा किया जाए तो गरीबी और भूख से जूझते कोरकू समाज का मनोबल बढेगा जो खुद यह मांग कर रहा है कि उसे प्राचीन आदिम जाती का दर्ज़ा मिले.  प्राचीन आदिम जाति का दर्ज़ा देकर , ही संरक्षित की जा सकती है "कोरकू जनजाति " 

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